गुरुवार, 13 सितंबर 2012

बैरन हो गयी निंदिया ...

रात एक बजे वाली करवट 
बोली नहीं कुछ 
सुलगती रही 
अंदर ही अंदर 
मगर फिर 
डेढ़ बजे वाली ने 
चुपचाप आती जाती साँसों के कान में 
भर दिया न जाने कैसा ज़हर 
अंदर जाती हर साँस ने नाखूनों से 
खरोंचना शुरू कर दिया दिल को 
बाहर आती साँस को हर बार
पीछे से धक्का देना पड़ रहा था

खुली पलकों ने
कातर होकर
बूढ़े बिस्तर के शरीर पर आयी
झुर्रियों को देखा
बिस्तर ने
करवट की ओर देखा
करवट ने घड़ी की ओर
घड़ी ने आसमान की ओर
आसमान ने चाँद की ओर
और
चाँद ...?

बस्स्स्स !


तुम्हारा जिक्र आते ही
मैं नाउम्मीद हो जाता हूँ


हरजाई साँसें
ये सारी बात
नहीं समझती न |
_________________

- आनंद 

7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! नींद न आना भी कवि के लिए एक वरदान हो जाता है..

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  2. वाह... डेढ़ बजे वाली कितनी सुन्दर रचना कर गई...

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  3. करवटें देर रात की....
    बहुत खूब..
    सुन्दर रचना...!!

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  4. बहुत खूब भाव पूर्ण प्रस्तुति

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    एक शाम तो उधार दो

    मेरे भी ब्लॉग का अनुसरण करे

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