बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

मुस्कराते ख़्वाब !

नींद में ही था
कि तुम्हारी याद
छिड़क कर भाग गयी
एक चुटकी मुस्कराहट
होठों पर, 
पर...तुम तो सैकड़ों कोस दूर हो
ये कौन सुबह सुबह नाक दबाकर भाग गया फिर ?

ये मुस्कराहटें...
कब बोयी थी तुमने हमारे लिए
अब एकदम लहलहा रही हैं
धान की पकी बालियों की तरह !
तुम्हारे अहसासों की पाग बाँध
मैं भी निकल पड़ा हूँ
खेतों की तरफ
सुनूँगा गन्ने की पत्तियों की सरसराहट
देखूँगा बालियों का नाचना
कातिक की इस सोना बिखेरती दोपहर भर
पड़ा रहूँगा किसी मेंड़ पर,

खेलूँगा सारा दिन तुम्हारी यादों से
बार बार हटा दूंगा
तुम्हारे चेहरे पर आती वो शरारती लट,
दिखाऊंगा तुम्हें 
नहर किनारे टहलता हुआ 
सारस का जोड़ा,
जलमुर्गी और टिटिहरी के अंडे,
दूर चटक नीले आसमान के नीचे
उड़ता हुआ सफ़ेद हवाई जहाज...,
उससे जरा नीचे पक्षियों के भागते झुंड,
छील छील कर खिलाऊंगा
अपने हाथ से तोड़कर कच्चे सिंघाड़े
और नज़रें बचाकर झाँकूंगा तुम्हारी आँखों में ...

बस
उसके बाद
या तो और ख़्वाब देखूँगा
या फिर
कोई ख़्वाब नहीं देखूँगा !

- आनंद

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति से जोडती हुयी कविता ,, बहुत ही सुन्दरता से लिखी है ....
    शुभकामनाएं !!

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