रविवार, 30 अक्टूबर 2011

नि:सीम..



तोड़ कर 
दुनिया भर की 
सीमाओं को ,
सही गलत के 
विश्लेषण से परे ,
घटित हुआ था 
हमारा प्रेम ..
जिया है 
हर पल जिसे 
होते हुए हमने 
किसी मंदिर में ..
फिर
एक दिन अचानक....

क्यों बांधना चाहा था मैंने,
तुमको ,
सीमाओं में !
क्यूँ सोच न पाया मैं 
कि 
नहीं है प्रेम 
मंदिर की 
सीमाओं तक ही !!!

सुन ..!
ओ मेरे
प्रेम गगन के पंछी,
ले  कर
मेरी साँसों से
अपने प्यार के
संदल की खुशबू ,
दे विस्तार 
अपनी  
सहज ,
स्वाभाविक 
उड़ान को...
हो जाये सुरभित
जिससे
ये धरती
क्या ,
आकाश भी !!

आनंद द्विवेदी २५/१०/२०११

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन ..!
    ओ मेरे
    प्रेम गगन के पंछी,

    बहुत सुन्दर संबोधन ...बंधन ही तोप्रेम को खत्म कर देता है .. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  2. प्रेम भरे मन की ....अभिव्यक्ति ..
    जो दुनिया की नज़र से छिपा कर अपने प्रेम को जीना सीखाती है

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  3. क्यों बांधना चाहा था मैंने,
    तुमको ,
    सीमाओं में !
    क्यूँ सोच न पाया मैं
    कि
    नहीं है प्रेम
    मंदिर की
    सीमाओं तक ही !!!

    प्रेम स्वतंत्र होता है और खिलता भी तभी है जब प्रेम को सहजता और स्वाभाविकता के साथ स्वीकार किया जाए.....!!
    सुन्दर अभिव्यक्ति....

    ***punam***
    tumhare liye...
    bas yun...hi...

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  4. क्यों बांधना चाहा था मैंने,
    तुमको ,
    सीमाओं में !
    क्यूँ सोच न पाया मैं
    कि
    नहीं है प्रेम
    मंदिर की
    सीमाओं तक ही !!!
    Behtareen alfaaz!

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  5. क्यों बांधना चाहा था मैंने,
    तुमको ,
    सीमाओं में !
    क्यूँ सोच न पाया मैं
    कि
    नहीं है प्रेम
    मंदिर की
    सीमाओं तक ही !!! waah! bhaut hi acchi aur sarthak panktiya...

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