फाँस बनकर गले में अटकी हुई है जिंदगी ,
कशमकश के शहर में भटकी हुई है जिंदगी !
वो जो पत्थर सामने है, वफ़ा का है प्यार का,
उसी पर खूब जोर से पटकी हुई है जिंदगी !
अपने टूटे पाँव लेकर जो पड़ी है खाट पर ,
उनके दर से धूल सी झटकी हुई है जिंदगी !
सड़क पर की धूप से बेचैन होकर, भागकर
छत में पंखे से यहाँ लटकी हुई है जिंदगी !
छटपटाता हुआ एक 'आनंद' इसमें कैद है ,
दर्द से हर जोड़ पर चटकी हुई है जिंदगी !!
--आनंद द्विवेदी १९/०२/२०११
kya bhaiya fir se...nakaratmak soch!!
जवाब देंहटाएंmanta hoon, ek umda rachna...fir bhi!!
last stanga me itna dard...:(
han mukesh jaise jaise ham last ki taraf badh rahe hain...dard bhi kambakht badhta hi jaa raha hai.
जवाब देंहटाएं'सड़क पर की धूप से बेचैन होकर भागकर
जवाब देंहटाएंछत में पंखे से यहाँ लटकी हुई है जिंदगी '
द्विवेदी जी ,
संत्रास झेलती जिन्दगी का यथार्थ बयां हुआ है !
सड़क पर की धूप से बेचैन होकर, भागकर
जवाब देंहटाएंछत में पंखे से यहाँ लटकी हुई है जिंदगी !
wo bhi ruk ruker chal rahi hai, bahut achhi abhivyakti
Gahri soch,gahri baat... Maarmik abhivyakti...
जवाब देंहटाएंBahut khoob...
Saadar