यूँ खुश तो क्या था, मगर गमजदा नहीं था मैं,
तुम मुझे 'जो' समझ रहे थे, 'वो' नहीं था मैं |
मेरी बर्बाद दास्ताँ , है कोई ख़ास नहीं,
जब मेरा घर जला, तो आस पास ही था मैं |
चंद लम्हे, जो मुझे जान से भी प्यारे थे,
उनकी कीमत पे मैं बिका,मगर सही था मैं |
दुश्मनो को भी सजा, प्यार की ऐसी न मिले,
मेरी चाहत थी कहीं और,और कहीं था मैं |
तुमने बेकार मेरा क़द बढा दिया इतना,
फलक तो क्या जमीन पर भी कुछ नहीं था मैं |
घर उदासी ने बसाया है, जहां पर आकर,
शाम तक उस जगह 'आनंद' था, वहीं था मैं |
-----आनंद द्विवेदी. २८/१२/२०१०
चंद लम्हे, जो मुझे जान से भी प्यारे थे,
जवाब देंहटाएंउनकी कीमत पे मैं बिका,मगर सही था मैं!
यह प्रतिबद्धता स्तुत्य है!
तुमने बेकार मेरा क़द बढा दिया, इतना,
जवाब देंहटाएंफलक तो क्या, जमीन पर भी कुछ नहीं था मैं!
ये स्वीकारोक्ति व्यक्तित्व की विशालता की परिचायक है!